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मई, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

राख को मत कुरेदिये

शीर्षक- राख को मत कुरेदिये राख को मत कुरेदिये जल जाएंगे हाथ वरना। अब तलक़ जो दफ़्न है तिश्नगी उभर जाएगी।। कुछ राज़ बस होते हैं राज़ रहने के लिए। क्यों करे पर्दाफ़ाश जानशीं मुकर जाएगी।। दहकता लावा छुपाये बैठें हैं हम सर्द मौसम में। खुल जाए जो हक़ीक़त तो रोशनी उतर जाएगी।। शहरयार सा था मेरे वो दिल-ए-सल्तनत का। गुफ़्तगू करूँ जज़्बात-ए-यार तो चाँदनी उघर जाएगी।। बन गया फ़साना मेरे चैन-ओ-सुकून का। हो जाए जो बयाँ राज़ तो बंदगी गुज़र जाएगी।।

बैठे बैठे यूँ ही सोच जाती हूँ मैं

3- शीर्षक - बैठे-बैठे यूँ ही सोच जाती हूँ मै कुछ सवालों के जवाब ढूंढ न पाती हूँ मैं।  बैठे-बैठे यूँ ही सोच जाती हूँ मैं।। एक कसक जो अक्सर उभरती सी है। एक मंज़र जो सदा याद रहता सा है।। एक आंसू जो क़हर ढाते थे कभी। एक दरिया जो अश्क़ों का बहता सा है।। जिन राहों पर पाँव रखा था कभी, उन राहों पर अब क्यूँ चल न पाती हूँ मैं।  बैठे-बैठे यूँ ही सोच जाती हूँ मैं।। क़िताबों पे जैसे ज़िल्द सी है चढ़ी। मन में मेरे वही आरज़ू है पली।। हर्फ़ पन्नों में जैसे समा से गए। आंधियां जब जमाने की उड़ाने चली।। बुझ न पाया दीया रोशन करता रहा, रोज़ आंधियों से क्यूँ टकराती हूँ मैं।  बैठे-बैठे यूँ ही सोच जाती हूँ मैं।। उनके उल्फ़त की तासीर में हूँ बसी। कौन हूँ मैं,कहाँ हूँ जानती भी नही।। फ़लसफ़ा भी न समझा जब वो जाने लगे। ख्वाहिशों के टूटे हैं अरमां मानती भी नहीं।। न लौटेंगे गुजरे लम्हे कभी, उन लम्हों में क्यों लौट जाती हूँ मैं।  बैठे-बैठे यूँ ही सोच जाती हूँ मैं।।

मंज़ूर था

1- शीर्षक- मंजूर था पतझड़ में पत्तों का झर जाना शायद यही मंजूर था। खो के अस्तित्व खुद में  सिमट जाना शायद यही मंजूर था। कभी जो सजते थे शाखों पर, कलियों की मुस्कान बनकर तूफ़ां में बिखर जाना  शायद यही मंजूर था हंसती आंखों में है कितनी अनकही सी कहानी भावों का बरबस बरस जाना शायद यही मंजूर था अधूरी सी ज़िन्दगी का बोझ उठाने पर उफ भी न निकले शायद यही मंजूर था।

कलयुग की करामात

शीर्षक- कलयुग की करामात देखो कलयुग ने, क्या क्या खेल रचाये। हतप्रभ हुई है वसुधा, प्रकृति भी नाच नचाये। मानवता सारी नष्ट हुई, हर तरफ लूट और पाट। नीचा दिखाने एकदूजे को प्रतिदिन ढूंढ़ते काट।। न अपनों का आदर है, न किसी का मान सम्मान। निज स्वार्थवश हो गए सब लालची और बेईमान।। कर-कर के प्रकृति का दोहन, ज़हर घोल दिया परिवेश। स्वच्छ वायु न हवा बची है, जाओ कोई भी देश।। है कलियुग की करामात, नव नित होते अनुसन्धान। है प्रगति या मार्ग विनाश, जो होते नवीन विधान।। -शालिनी मिश्रा तिवारी ( बहराइच,उ०प्र० )

दिल की आरज़ू

शीर्षक -दिल की आरज़ू हरपल रहूँ तेरे आस-पास, है दिल की आरजू। मेरे नाम में तेरा नाम हो, नहीं दूजी कोई जुस्तजू।। मेरे सीने में धड़कता है, सांस बनकर के वो। है ख़ुदी में समाया, आस पलकर के वो। है इल्तिज़ा रब से , पलकें नम हो न कभी। पल जो हैं खुशियों के, उनके कम हो न कभी।। उनके पहलू में दम ये निकले मेरा, जुदा हों न मेरा प्यार मुझसे मेरा। आखिरी सांस तक उनकी होके रहूँ, कभी टूटे न मुझसे ये रिश्ता तेरा।। -शालिनी मिश्रा तिवारी ( बहराइच,उ०प्र० )

ईद

शीर्षक - ईद रहबरों का रहबर है,तू कर दे मुराद पूरी। भटक रही हूँ सहरा में,कब तलक़ रहेगी दूरी।। तेरे इश्क़ में हूँ मतवाली,मेरे दिल की तुझसे जुम्बिश। तुझ बिन सारे हो गए हैं,मेरे सितारे गर्दिश।। ईद पर दीदार दे ओ मेरे परवरदिगार। रूह है तड़पती कब होगा वस्ल-ए-यार।। रक़ीब भी गले लगे आया है ये त्यौहार। ओ मेरे मालिक सब पर लुटा दो अपना प्यार।। फ़र्हाद हुआ है मन,रब्त तुझसे अपना जोड़ के। खाना-ए-दिल में मौला समाया,आई जंजीरे तोड़ के।। आज का मंज़र आज की फिज़ा, तेरी कयादत है। या इलाही बस तुझसे ही मेरी रफ़ाक़त है।। ऊपर वाले रहम-ओ-करम थोड़ा सा बरसा दे हो न कभी इश्क़ वालों को मिलने को तरसा दे चैन-ओ-अमन का पाक़ सा है,आपस का सारा मेल। रहे न कोई दीन दुखी,न खेले क़िस्मत कोई खेल।। हो मन में न शिक़वा-गिला,हो आपस में भाईचारा। छोटा बड़ा न कोई हो,मिलजुल के रहे संसार सारा।। -शालिनी मिश्रा तिवारी ( बहराइच, उ०प्र० )

मालूम नहीं

मालूम नहीं कटी पतंग का दशा न दिशा कटी कब डोर पता नहीं भटक रही है जाने कबसे मालूम नहीं। वेगशून्य अस्थिर शून्य में न ओर-छोर था गुमान की बंधी हूँ मजबूत स्तम्भ से। मालूम नहीं थी कच्ची डोर नापना था दूर तलक आसमान बंध के भी मुक्त विचरण कट गई आखिर अब न होगा मेरा अस्तित्व न होगी ऊंची उड़ान। -शालिनी मिश्रा तिवारी ( बहराइच,उ०प्र० )

आज खुली है मधुशाला

शीर्षक- आज खुली है मधुशाला आज खुली है मधुशाला तो कैसा मचा हुआ कोहराम है छोटे बड़े सब बोल रहे हैं तथाकथित हाल खास-आम है।। विषम घड़ी है देश की, अर्थव्यवस्था बिगड़ रही। लॉकडाउन का मातम कब तक, चोट कोष पर बड़ी पड़ी। मन्दी को तेजी करने का ये हुआ सारा इंतज़ाम है आज खुली है मधुशाला तो कैसा मचा कोहराम है सामाजिक मंचों पर सब तो, विरोध का राग आलाप रहे। पर चोरी चुपके-चुपके से तो, मयखाने का रास्ता नाप रहे। व्हाइट हो गया देश का धन,ब्लैक का काम तमाम है। आज खुली है मधुशाला तो,कैसा मचा कोहराम है।। है इतनी जो बुरी सुधा तो, क्यों लम्बी लगी कतार है। दौड़-दौड़ सब खरीद रहे, मन्दी का ऐसा व्यापार है। सुदृढ़ हो जाएगी अर्थव्यवस्था,दृढ़ता को न विराम है। आज खुली है मधुशाला तो,कैसा मचा कोहराम है।। -शालिनी मिश्रा तिवारी ( बहराइच,उ०प्र० )

धरती की गोद में

धरती की गोद में, समाया सारा संसार। जीवनदात्री तू है सबकी, उठाया जग का भार।। तेरी गोद में खेले, कल-कल करती नदियाँ। वक्ष पर तेरे बनी, जाने कितनी पगडंडियाँ।। ऊँचा खड़ा हिमालय, तेरी ममता की छांव में। सरल-स्नेह-सुधा बरसती, जननी तेरे गांव में।। रत्न-गर्भ में संचित कर, रत्नगर्भा कहलाई। अनुपम छवि प्रकृति ने, तेरे कण-कण से पाई।। ओ धरती माँ!सबकी, तू है जीवन-आधार। तेरी रज-कण में बसता, स्वास्थ्य, समृद्धि अपार।। तेरी गोद में करते, खग-कुल कलरव। तेरे बिन जन-जीव का, होगा जीवन नीरव।। -शालिनी मिश्रा तिवारी ( बहराइच,उ०प्र० )