बैठे बैठे यूँ ही सोच जाती हूँ मैं
3- शीर्षक - बैठे-बैठे यूँ ही सोच जाती हूँ मै
कुछ सवालों के जवाब ढूंढ न पाती हूँ मैं।
बैठे-बैठे यूँ ही सोच जाती हूँ मैं।।
एक कसक जो अक्सर उभरती सी है।
एक मंज़र जो सदा याद रहता सा है।।
एक आंसू जो क़हर ढाते थे कभी।
एक दरिया जो अश्क़ों का बहता सा है।।
जिन राहों पर पाँव रखा था कभी,
उन राहों पर अब क्यूँ चल न पाती हूँ मैं।
बैठे-बैठे यूँ ही सोच जाती हूँ मैं।।
क़िताबों पे जैसे ज़िल्द सी है चढ़ी।
मन में मेरे वही आरज़ू है पली।।
हर्फ़ पन्नों में जैसे समा से गए।
आंधियां जब जमाने की उड़ाने चली।।
बुझ न पाया दीया रोशन करता रहा,
रोज़ आंधियों से क्यूँ टकराती हूँ मैं।
बैठे-बैठे यूँ ही सोच जाती हूँ मैं।।
उनके उल्फ़त की तासीर में हूँ बसी।
कौन हूँ मैं,कहाँ हूँ जानती भी नही।।
फ़लसफ़ा भी न समझा जब वो जाने लगे।
ख्वाहिशों के टूटे हैं अरमां मानती भी नहीं।।
न लौटेंगे गुजरे लम्हे कभी,
उन लम्हों में क्यों लौट जाती हूँ मैं।
बैठे-बैठे यूँ ही सोच जाती हूँ मैं।।
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