चाहतों के सफ़र में उलझे रहे सदा। कभी अपने वज़ूद को देखा नहीं हमने।। इक उम्र तक चला यूँ ही सिलसिला। कभी अपने गुरुर को देखा नहीं हमनें।। सर-ए-आम लुटती रही चाहतों की बस्तियां। कभी अपने जुनून को देखा नहीं हमने।। वो खेला किये मेरे हसरतों जज़्बात से। कभी अपने रसूख़ को देखा नहीं हमने।। थक सा गया ये मन्ज़र मेरे इश्क़-ए-सफ़र से। कभी अपने चैन-ओ-सुकून को देखा नही हमने।। बड़े बेमुरव्वत से लोग मिले मेरे रहगुज़र में। कभी अपने मक़सूद को देखा नही हमने।। मेरी चाहतों से सदा वो मुकरते चले गए। कभी अपने मरदूद को देखा नहीं हमने।।
अंतर में कब से घुले हो या अंतर ही बना है तुझसे क्यों बिना बताए यूँ तुम छुपे रहते हो क्यों नहीं जाते निकल कर मेरे अंतर से वेधते रहते हो प्रति क्षण उर मेरा जब तब बह आते जलधारा मानिंद ये कैसा नेह है जो छूटता भी नहीं और बंधता भी नहीं न कोई आस है न ही उम्मीद बस एक यकीं सा अधूरा स्वप्न जो मन हुलसित भी करता और वेदना से छिलनी भी।। -शालिनी मिश्रा तिवारी (बहराइच,उ०प्र० )
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