कलयुग की करामात


शीर्षक- कलयुग की करामात

देखो कलयुग ने,
क्या क्या खेल रचाये।
हतप्रभ हुई है वसुधा,
प्रकृति भी नाच नचाये।

मानवता सारी नष्ट हुई,
हर तरफ लूट और पाट।
नीचा दिखाने एकदूजे को
प्रतिदिन ढूंढ़ते काट।।

न अपनों का आदर है,
न किसी का मान सम्मान।
निज स्वार्थवश हो गए सब
लालची और बेईमान।।

कर-कर के प्रकृति का दोहन,
ज़हर घोल दिया परिवेश।
स्वच्छ वायु न हवा बची है,
जाओ कोई भी देश।।

है कलियुग की करामात,
नव नित होते अनुसन्धान।
है प्रगति या मार्ग विनाश,
जो होते नवीन विधान।।
-शालिनी मिश्रा तिवारी
( बहराइच,उ०प्र० )

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