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अप्रैल, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अस्तित्व

शीर्षक- अस्तित्व खो गई हूँ, कहीं वक़्त के गर्त में, है क्या अस्तित्व मेरा, कहाँ थी जड़े मेरी, कहाँ तरु पनपा है। मैं - मैं नहीं हूँ, कौन हूँ मैं, कहाँ हूँ मैं। बंध गई हूँ, कितने ही सिरों से, क्यों खोल नही पाती, मैं सारी गांठें। कहाँ ढूंढू मैं खुद को, किस ओर है राह मेरी। क्या नारी होना अभिशाप है? अगर नहीं तो, क्यों अस्तित्व खोया है मेरा? ढूंढ लूं उस क्षण को, जब, टुकडों टुकडों में, बंटना शुरू हुई थी। शायद पा जांऊ कहीं खुद को, और बुन लूं फिर से, कल के स्वप्न।।। - शालिनी मिश्रा तिवारी ( बहराइच, उ०प्र० )

माँ की रसोई

माँ की रसोई होती हूँ भूखी जब मैं माँ तेरी सूरत तेरी रसोई बहुत  याद आती है।। गांव का वो कच्चा घर कोने में बनी वो रसोई जहाँ मिट्टी के चूल्हों पर तेरा खाना पकाना वो बचपन की यादें बहुत याद आती है।। बड़े ही सलीक़े से रखी हर चीज, डिब्बों में बिना लेबल के जान जाना किसमें दाल है किसमें चावल अंधेरे में गन्ध से पहचानना जीरा की सुगंध या अजवाइन की।। घर के भीतर उठते हुए धुँए को  हम बाहर खेलते हुए ही  देखकर समझ जाते माँ कुछ बना रही है दौड़कर माँ-माँ चिल्लाते। माँ का अंदर से बोलना पैर धुल के आना। माँ तेरे हाथों का स्वाद मैं भी उतार पाती अपनी रसोई में। माँ सच में तेरी रसोई बहुत याद आती है।। -शालिनी मिश्रा तिवारी ( बहराइच,उ०प्र० )

अधूरे ख़्वाब

शीर्षक- अधूरे ख़्वाब अधूरे ख़्वाब की ताबीर हूँ मैं कहीं ख़यालों की तेरे तस्वीर हूँ मैं कहीं।। लम्हा-लम्हा तू साथ रहता मेरे। तेरे जीवन की जागीर हूँ मैं कहीं।। हो मुक़म्मल मेरी भी हस्ती कभी। रंग लाती मुहब्बत की तासीर हूँ मैं कहीं।। जर्रे-जर्रे में तेरा अक्स दिखता मुझे। रहगुज़र की तेरे तक़दीर हूँ मैं कहीं।। चलती रहती हूँ ख़ानाबदोश जैसी कहीं। उड़ते परिंदों के जैसे नज़ीर हूँ मैं कहीं।। रह गया ख़्वाब अधूरा ही मेरा। सियासत की जंजीर हूँ मैं कहीं।। -शालिनी मिश्रा तिवारी ( बहराइच, उ०प्र० )

पिय बिन जीवन

पिय ! तुम बिन जीवन कुछ नही, तुमसे साज़ श्रृंगार। तुम रूठो तो मुस्कान भी रूठे, रूठ जाए संसार।। नहीं चाहिए कोई गहना, न हीरा न मोती। सारी उम्र बस मेरे रहना, मांगू बस ये मनौती। मिल जाता सर्व सुख जब मिलता बाहों का हार। तुम रूठो तो दुनिया रूठे रूठ जाए संसार।। उद्विग्नता जब मन पर छाती, सीने पे सिर रख सो जाती। भूल के सारी उलझन मन की, सुकून-ए-शहर में खो जाती। माथे पे स्नेहिल सा हाथ जब रखते, मिलता बाबुल-सा प्यार। तुम रूठो तो दुनिया रूठे, रूठ जाए संसार।। अखण्ड रहे सौभाग्य हमारा, अखण्ड रहे सिंदूर। अखण्ड रहे ये मंगल धागा, रहे कभी न दूर। चरण-धूलि माथे पर लगाकर जीवन लूं मैं तार। तुम रूठो तो दुनिया रूठे, रूठ जाए संसार।। -शालिनी मिश्रा तिवारी✍️ ( बहराइच, उ०प्र० )

नदी की आत्मकथा

शीर्षक -नदी की आत्मकथा मैं नदी हूँ। मैं निरन्तर चलती हूँ। प्रस्तरों से,कंटको से, पथरीली धरा पर, बहती हूँ। मैं नदी हूँ। मेरे अनेकानेक नाम हैं। किसी ने गंगा कहा, किसी ने यमुना, किसी ने ब्रह्मपुत्र, तो किसी ने सिंधु। अन्तर्निहित समेटे, कई भाव में प्रवाहित होती हूँ। मैं नदी हूँ। निरन्तर कर्मपथ पर, चलती हूँ। अपने प्रियतम से, मिलने हेतु अनेक, यातनाएं सहती हूँ। मैं नदी हूँ। दो तटों के मध्य, माध्यम हूँ मिलने का, कृषकों की जीवनदायिनी हूँ। उनकी रणभूमि की, प्यास बुझाती हूँ। मैं नदी हूँ। मैं शांत कलकल गतिमान हूँ, परन्तु, उग्र रूप में आऊँ तो, प्रलय भी मचाती हूँ। मैं नदी हूँ। अपने जलधि से, मिलकर, अपना अस्तित्व मिटाकर, सम्पूर्णता प्राप्त करती हूँ। मैं नदी हूँ।

गुरु वंदना

गुरु वन्दना है गुरु से श्रेष्ठ न कोई,  गुरु है जगत के ईश गुरु बिन मूढ़ ही रहता जग, गुरु हैं सबके अधीश जब अज्ञान का घन गहराया तेज पुंज तुम लिए खड़े थे दिव्य अनुभूति की लौ में तुम हम पर उपकार किये बड़े थे। जब घनी हो अज्ञता वृष्टि, बने हो तब -तब गिरीश। है गुरु से श्रेष्ठ न कोई, गुरु हैं सबके अधीश।। अज्ञान के पथरीले पथ पर नव ज्ञान का पुष्प  खिलाया भटके हुए मन को फिर से सद्मार्ग का पन्थ दिखाया।। हे दयानिधे अब कर दो  अपनी दया से मनीष। है गुरु से श्रेष्ठ न कोई, गुरु हैं जगत के ईश।। इतनी कृपा अब करदो गुरुवर मन-संकल्प न टूटे जब-जब मन अब भटके तब-तब वचन न निकले झूठे।। तेरी कृपा से हो जाये मूक भी तो वागीश। है गुरु से श्रेष्ठ न कोई, गुरु हैं जगत के ईश।। गुरूकृपा की महिमा का अब  क्या मैं बखान करूँ हो जाये जो तेरी कृपा तो भवसागर पार करूँ। ओ करुणा के सागर, तुझको मैं नवाऊँ शीश। है गुरु से श्रेष्ठ न कोई, गुरु हैं जगत के ईश।। - शालिनी मिश्रा तिवारी ( बहराइच,उ०प्र० )

गुरु वंदना

गुरु वन्दना है गुरु से श्रेष्ठ न कोई,  गुरु है जगत के ईश गुरु बिन मूढ़ ही रहता जग, गुरु हैं सबके अधीश जब अज्ञान का घन गहराया तेज पुंज तुम लिए खड़े थे दिव्य अनुभूति की लौ में तुम हम पर उपकार किये बड़े थे। जब घनी हो अज्ञता वृष्टि, बने हो तब गिरीश। है गुरु से श्रेष्ठ न कोई, गुरु हैं सबके अधीश।। अज्ञान के पथरीले पथ पर नव ज्ञान का पुष्प  खिलाया भटके हुए मन को फिर से सद्मार्ग का पन्थ दिखाया।। हे दयानिधे अब कर दो  अपनी दया से मनीष। है गुरु से श्रेष्ठ न कोई, गुरु हैं जगत के ईश।। इतनी कृपा अब करदो गुरुवर मन-संकल्प न टूटे जब-जब मन अब भटके तब-तब वचन न निकले झूठे।। तेरी कृपा से हो जाये मूक भी तो वागीश। है गुरु से श्रेष्ठ न कोई, गुरु हैं जगत के ईश।। गुरूकृपा की महिमा का अब  क्या मैं बखान करूँ हो जाये जो तेरी कृपा तो भवसागर पार करूँ। ओ करुणा के सागर, तुझको मैं नवाऊँ शीश। है गुरु से श्रेष्ठ न कोई, गुरु हैं जगत के ईश।। - शालिनी मिश्रा तिवारी ( बहराइच,उ०प्र० )

उम्मीद

उम्मीदों के मोती, चुन-चुन के पिरोती हूँ कभी तो होगा सवेरा कभी तो कम होगा भीति का तम होगी नव वसंत की प्रात बीतेगी पतझड़ की ऋतु नव किसलय का होगा आगमन भ्रमरों के गुंजन से फिज़ा गुंजायमान होगी होगा चिड़ियों का कलरव  घनीभूत पीड़ा के बादल जो बरबस ही मोती परोसते हैं कभी तो सजीले  स्वप्नों की बौछार होगी हरी-हरी घास पर शबनम जो ठहरी है कभी तो  पाँवो को शीतलता देगी आहत है मन पग-पग में कभी तो यथार्थ में मन आनंदित होगा है अन्तस् का चीत्कार जो मुख पर अवसाद सा  बिखरा है कभी तो स्नेह की बरखा से धुलेगा बस जी रही हूँ इसी उम्मीद पर। -शालिनी मिश्रा तिवारी ( बहराइच, उ०प्र० )

दीप प्रज्वलन

🙏🙏सादर समीक्षार्थ🙏🙏 दीप प्रज्ज्वलन नौ बजे रखकर समय का ध्यान, करे प्रज्वलित दीप विश्वास का। नौ मिनट का दिया जलाकर, दोगुना बल हो मंगल विकास का।। एक दिए का मूल्य,है अनमोल ब्रह्मांड में, है संस्कृति हमारी जो है कर्म और कांड में। हर घर जलता दिया कहेगा, हम है वसुधैव कुटुंब। मन के भीतर का खत्म करेंगे, जो है तमस का कुंभ।। है दुष्कर दुरुह मगर, फिर भी प्रयास तो करना है। कोरोना से लड़ने को मन में, सबके आस तो भरना है।। आओ एकजुट हो जाये हम, दीप जला ले आशाओं का। कर ले जग उजियारा घर में, तोड़ दे पट बाधाओं का।। है दीये में प्रचंडता इतनी, दूर करेगा जग महामारी। जलाये हम एक दीप अनोखा, काल बन सब पर होगा भारी।। ज़ह्र जो फैला है जग में, दिखा दे एकता का बल हम। अपने घर में उजाला कर, अँधेरे को मुंह चिढ़ा दे हम।। मनःशक्ति से हरा दे, कोरोना भीति। बार फिर से मना ले, दीपावली रीति।। पर्याय बनेंगें विश्व पटल में, अखण्डता के होंगे प्रहरी। जगमग कर हम द्वार-अट्टालिका, शान्ति-निद्रा लेंगे गहरी।। -शालिनी मिश्रा तिवारी ( बहराइच,उ०प्र० )