माँ की रसोई
माँ की रसोई
होती हूँ भूखी जब मैं
माँ तेरी सूरत तेरी रसोई
बहुत याद आती है।।
गांव का वो कच्चा घर
कोने में बनी वो रसोई
जहाँ मिट्टी के चूल्हों पर
तेरा खाना पकाना
वो बचपन की यादें
बहुत याद आती है।।
बड़े ही सलीक़े से
रखी हर चीज,
डिब्बों में
बिना लेबल के
जान जाना
किसमें दाल है
किसमें चावल
अंधेरे में गन्ध से पहचानना
जीरा की सुगंध या
अजवाइन की।।
घर के भीतर उठते हुए
धुँए को
हम बाहर खेलते हुए ही
देखकर समझ जाते
माँ कुछ बना रही है
दौड़कर माँ-माँ
चिल्लाते।
माँ का अंदर से बोलना
पैर धुल के आना।
माँ तेरे हाथों का स्वाद
मैं भी उतार पाती
अपनी रसोई में।
माँ सच में तेरी रसोई
बहुत याद आती है।।
-शालिनी मिश्रा तिवारी
( बहराइच,उ०प्र० )
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