उम्मीद


उम्मीदों के मोती,
चुन-चुन के पिरोती हूँ
कभी तो होगा सवेरा
कभी तो कम होगा
भीति का तम
होगी नव वसंत की प्रात
बीतेगी पतझड़ की ऋतु
नव किसलय का
होगा आगमन
भ्रमरों के गुंजन से
फिज़ा गुंजायमान होगी
होगा चिड़ियों का कलरव
 घनीभूत पीड़ा के बादल
जो बरबस ही
मोती परोसते हैं
कभी तो सजीले 
स्वप्नों की
बौछार होगी
हरी-हरी घास पर
शबनम जो ठहरी है
कभी तो 
पाँवो को
शीतलता देगी
आहत है मन
पग-पग में
कभी तो यथार्थ में
मन आनंदित होगा
है अन्तस् का चीत्कार जो
मुख पर अवसाद सा 
बिखरा है
कभी तो
स्नेह की बरखा से
धुलेगा
बस जी रही हूँ
इसी उम्मीद पर।

-शालिनी मिश्रा तिवारी
( बहराइच, उ०प्र० )

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