जिंदगी कब जुल्फ सुलझेगी तेरी

तेरे हर्फ़ क्या कहानी लिखेगी मेरी

ज़िंदगी कब होगी सलीके से बसर

खुशियां कब आंगन में उतरेंगी मेरी

हो उलझी कितनी भी,पर न छोड़ न पाऊं साथ

भींच बंद मुट्ठी किया,फिसलती हो जैसे रेत हाथ

हो न ऐसा की तू सुलझे,और मैं उलझ जाऊं

लाख ढूंढे तू और मैं,हो गुम जाऊं

समेट ले तू अब,तेरे और तमाशे

खोल के ज़ुल्फ,वक्त से हाथ मिला ले

अब जो चूकी तो फिर न पाओगी

मौत आकर न कहीं,तुझे गले लगा ले

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