अंतर में तुम
अंतर में कब से घुले हो या अंतर ही बना है तुझसे क्यों बिना बताए यूँ तुम छुपे रहते हो क्यों नहीं जाते निकल कर मेरे अंतर से वेधते रहते हो प्रति क्षण उर मेरा जब तब बह आते जलधारा मानिंद ये कैसा नेह है जो छूटता भी नहीं और बंधता भी नहीं न कोई आस है न ही उम्मीद बस एक यकीं सा अधूरा स्वप्न जो मन हुलसित भी करता और वेदना से छिलनी भी।। -शालिनी मिश्रा तिवारी (बहराइच,उ०प्र० )