संदेश

  जिंदगी कब जुल्फ सुलझेगी तेरी तेरे हर्फ़ क्या कहानी लिखेगी मेरी ज़िंदगी कब होगी सलीके से बसर खुशियां कब आंगन में उतरेंगी मेरी हो उलझी कितनी भी,पर न छोड़ न पाऊं साथ भींच बंद मुट्ठी किया,फिसलती हो जैसे रेत हाथ हो न ऐसा की तू सुलझे,और मैं उलझ जाऊं लाख ढूंढे तू और मैं,हो गुम जाऊं समेट ले तू अब,तेरे और तमाशे खोल के ज़ुल्फ,वक्त से हाथ मिला ले अब जो चूकी तो फिर न पाओगी मौत आकर न कहीं,तुझे गले लगा ले

अंतर में तुम

चित्र
 अंतर में कब से घुले हो या अंतर  ही बना है तुझसे क्यों बिना बताए यूँ तुम छुपे रहते हो क्यों नहीं जाते निकल कर मेरे अंतर से वेधते रहते हो प्रति क्षण  उर मेरा जब तब बह आते जलधारा मानिंद ये कैसा नेह है जो छूटता भी नहीं और बंधता भी नहीं न कोई आस है न ही उम्मीद बस एक यकीं सा अधूरा स्वप्न जो मन हुलसित भी करता और वेदना से छिलनी भी।। -शालिनी मिश्रा तिवारी (बहराइच,उ०प्र० )

दिल आरामतलब

चित्र
 

चाहतों का सफ़र

चाहतों के सफ़र में उलझे रहे सदा। कभी अपने वज़ूद को देखा नहीं हमने।। इक उम्र तक चला यूँ ही सिलसिला। कभी अपने गुरुर को देखा नहीं हमनें।। सर-ए-आम लुटती रही चाहतों की बस्तियां। कभी अपने जुनून को देखा नहीं हमने।। वो खेला किये मेरे हसरतों जज़्बात से। कभी अपने रसूख़ को देखा नहीं हमने।। थक सा गया ये मन्ज़र मेरे इश्क़-ए-सफ़र से। कभी अपने चैन-ओ-सुकून को देखा नही हमने।। बड़े बेमुरव्वत से लोग मिले मेरे रहगुज़र में। कभी अपने मक़सूद को देखा नही हमने।। मेरी चाहतों से सदा वो मुकरते चले गए। कभी अपने मरदूद को देखा नहीं हमने।।

भटकता मन का पंछी

  3 - शीर्षक- भटकता मन का पँछी नित दिन जाने कितनी करता है दूरी तय कहाँ कहाँ से आ जाता है घूम के देख आता है कितनी मुश्किलें कितनी दुश्वारियाँ परेशानियाँ फिर भी  न आता है चैन इसको कोई कहता है बावरा हो गया है कोई कहता सम्हल जाएगा एक दिन पर ये मन का पँछी नहीं बहलता किसी भी हालातों में बस मृग मरीचिका की भाँति भटकता रहता है।।

अस्तित्व

 मेरा होना न होना एक जैसा होने में न होने का एहसास फिर भी चलती है जिंदगी निर्बाध किसी अनदेखे मुकाम की तरफ मालूम है है कुछ भी नहीं मिलेगा कुछ भी नहीं फिर भी  जाना तो पड़ेगा -शालिनी मिश्रा तिवारी

अंतर में तुम

 अंतर में कब से घुले हो या अंतर  ही बना है तुझसे क्यों बिना बताए यूँ तुम छुपे रहते हो क्यों नहीं जाते निकल कर मेरे अंतर से वेधते रहते हो प्रति क्षण  उर मेरा जब तब बह आते जलधारा मानिंद ये कैसा नेह है जो छूटता भी नहीं और बंधता भी नहीं न कोई आस है न ही उम्मीद बस एक यकीं सा अधूरा स्वप्न जो मन हुलसित भी करता और वेदना से छिलनी भी।। -शालिनी मिश्रा तिवारी (बहराइच,उ०प्र० )